भगवान बुद्ध ने क्या कहा है

भगवान बुद्ध ने क्या कहा है

ब्रह्म विहार

स्वयं को उन्नत करने की संभावनाएं प्रत्येक मनुष्य में अलग-2 होती हैं, किसी में कम और किसी में ज्यादा। अच्छाईयां और बुराईयां मनुष्य जीवन में उथल-पुथल मचा देती है। मनुष्य का मन अच्छाईयों और बुराईयों का भण्डार है। यदि मनुष्य स्वाभाविक गुणों को उन्नत करता है तो वह पूजनीय (देवता) बन जाता है और यदि बुराईयों की ओर उसका मन झुक जाता है तो वह मानवता के लिए अभिशाप बन जाता है। वह कलंकित जीवन व्यतीत करता है।

              जो मनुष्य जन सेवा के लिए अपने को उपयोगी समझता है और मानव सेवा के लिए अपने को उन्नत करता है तो अच्छाईयां उसके मन उत्पन्न होती रहती है। गरीब से गरीब नर- नारी भी अच्छाईयों को समुन्नत  ऊंचाई को प्राप्त कर सकते हैं। उनको मन की गहराईयों में खोजने की आवश्यकता है। जिन्हें वह प्राप्त करना चाहता है।

         प्रत्येक अवगुण के समानांतर विकल्प के तौर पर सद्गुण भी होता है जैसे  क्रोध अत्यंत घातक अवगुण है इसका विकल्प सदगुण मैत्री भावना, मनुष्य में हिसात्मक प्रवृति का विकल्प सद्गुण करुणा है। मनुष्य जीवन में ईर्ष्या विष तुल्य है जिसने अस्वस्थ एवं घातक प्रतिस्पर्धा पैदा करने में अहम भूमिका निभाई, इस विष तुल्य ईर्ष्या के लिए एक विशेष औषधि मुदिता है। मानव जीवन में संतुलन बिगाड़ने के लिए दो अन्य प्राकृतिक विशिष्ट गुण जैसे विषय सुख के प्रति आसक्ति  तथा व्याकुलता के प्रति घृणा इन अन्तर दोनो से उपेक्षा विरोधी ताकतों का से सद्गुण से मुक्ति मिल सकती है।

               सामुहिक तौर पर चार प्रभावशाली सद् गुणों को उत्कृष्ठ पालि भाषा में ब्रह्म विहार कहा जाता है। जिन्हें सम्यक व्यवहार और निरंतर अभ्यास से उन्नत एवं प्राप्त किया जा सकता है।

                           सुन्त निपात के अनुसार सभी प्राणियों के प्रति मैत्री भावना ब्रह्मविहार कहलाता है। शान्ति-पद की इच्छा करने वाले नर- नारी को चाहिए कि उसकी वाणी  सुन्दर, मृदु और  विनीत हो। उसे संतोषी  होना चाहिए। वह  ऐसा छोटे से भी छोटा  कार्य को न करे, जिसके लिए विद्वान लोग दोस दें | सदैव मन मे यह भावना रहनी चाहिये कि सभी प्राणी सुखी हो।

 सभी प्राणी सुख पूर्वक रहें। वै मनस्य या विरोध में एक दूसरे के दुख की इच्छा न करे|  सुत्त निपाद के अनुसार    

                                      माता यथा नियं पुत्तं, आयुसा एक पुत्रमनुरक्खे |

                                     एवम्पि सब्ब भूतेसु ,  मानस  भावये अपरिमाणं ||

माता जिस प्रकार अपनी जान की परवाह न कर के अपने इकलौते पुत्र की रक्षा करती है, उसी प्रकार प्राणी मात्र के प्रति असीम प्रेम भाव बढ़ाये |

मैत्री

           ब्रह्म विहार में पहला श्रेष्ठ गुण मैत्री है। इसका अभिप्राय हृदय की कोमलता है, एक सच्चे हितेषी मित्र की अवस्था है। यह बिना लाग लपेट के सभी प्राणियों के प्रति आनन्द दायिनी इच्छा है।

मैत्री कोई सांसारिक प्यार अथवा व्यक्तिगत स्नेह नही है। क्योंकि ये दोनों दुख के हेतु है, दुख समुदय है। मैत्री कोई आपसी समीपता अथवा बंधन भी नहीं है। मैत्री राष्ट्रीय भाई चारा भी नहीं है। मैत्री धार्मिक भाईचारा भी नहीं है। जाति और वंश आधारित भाईचारा भी मैत्री नहीं है। मैत्री भावना सभी तंग दिल मिजाज भ्रा भातृभाव  से उन्नत एवम् श्रेष्ठ है।

इसे किसी भी प्रकार की सीमाओं में नहीं बाधा जा सकता ।  इसके लिए कोई आड़-बाड़  नही है । मैत्री के अन्तर- निर्हित कोई प्रभेद नहीं है।  मैत्री भावना के लिए सारा संसार एक मातृभूमि है और सभी सहचर सहजातीय है। रोशनी जिस प्रकार सूर्य बिना किसी भेदभाव के सभी को मिलती है, उसी प्रकार उत्कृष्ठ मैत्री भावना का श्रेष्ठ उपहार सभी सुखी -दुखी, अमीर -गरीब, भले बुरे, मानव-दानव , पशु पक्षियों आदि को समान रूप से मिलता है।

मैत्री भावना में स्वयं और अन्य में कोई भेद नही होता क्योकि अहं का भाव समग्रता में विलीन हो जाता है। उत्कृष्ठ पालि शब्द मेत्ता (मैत्री)  की गहराईयों में जा कर देखा जाए तो  इस शब्द की पूर्णता के लिए अन्य कोई शब्द नहीं है। लेकिन फिर भी दया भाव, मंगल कामना, परोपकारिता, हितेषी, उदार तथा सार्वभौमिक प्यार आदि शब्द इसी में समा जाते है। मैत्री और क्रोध का सम्बन्ध दूर-दूर तक भी नहीं है । कभी एक साथ नही रह सकते।

भगवान बुद्ध  ने कहा है –

                                         न ही वेरेन  वेरानि सम्मन्तीध कुदाचनं  ।

                                      अवेरेन च सम्मन्ति, एस धम्मो सनन्तनो ||

संसार में वैर से वैर कभी खतम नहीं होता, अवैर से  वैर शान्त होता है। यही सदा से होता है चला आया पुराना मानव धर्म है । केवल मात्र प्रेम से ही वैर को नकेल डाली जा सकती है। मैत्री भावना केवल क्रोध को जीतने के लिए ही नहीं है बल्कि यह दूसरों के प्रति दुर्भावना को भी सहन नहीं करती | जिसके पास मैत्री है वह दूसरों को नुकसान पहुंचाने, तिरस्कार करने, निन्दा  करने  और भयभीत करने का विचार नही कर सकता।  परस्पर प्रेम मैत्री भावना से भिन्न है। निस्वार्थ मैत्री भावना पारस्परिक स्नेह से ऊपर है, समानार्थक नहीं है।

करुणा

              मैत्री के पश्चात ब्रह्म विहार का अभिन्न अंग करुणा है। यह गुण मनुष्य को श्रेष्ठ बनाता है। जब मनुष्या  का दिल दुखी को देख कर फड़पड़ाने लगे तो समझना चाहिए करुणा जाग्रह हो रही है दूसरों के दुख को दूर करने की भावना इसकी मुख्य विशेषता है। करुणा प्रेरित हृदय फूलों से भी अधिक कोमल होता है। करुणा से ओत-प्रोत व्यक्ति दुख से पीड़ित व्यक्ति चाहे किसी भी जाति, वंश, धर्म अथवा  लिंग का हो, उसकी सेवाओं में लगा रहता है।     

               संसार में कई जगह धमार्थ संस्थाएँ चल रही हैं, चैरिटेबल संस्थाएँ चल रही है जो इस प्रकार की सेवाएं प्रदान करती है। वृद्धाश्रम अनाथ आश्रम और नेत्रहीन व्यक्तियों के लिए चलाई जा रही संस्थाओं में कारुणिक सेवाएं बड़ी सहायक हैं

              कई राष्ट्रों में पशु-पक्षियो के रोग उपचार का प्रयास किया जा रहा है । सर्वश्रेष्ठ उदाहरण बुद्ध ने दिया है। उन्होंने कहा  है- “जो मेरी सहायता करना चाहता है वह रोगियों की सहायता करे।“  

                    कई निस्वार्थ डाक्टर रोगियों की निःशुल्क सेवा करते है। कई चिकित्सक तो अपना समय और ऊर्जा रोगियों की सेवा करते हुए अपने शारीरिक स्वास्थ्य को भी दाव पर लगा देते हैं। बुध की करुणा के अनुसार शारीरिक अथवा मानसिक रोगियों से ज्यादा अज्ञानी, दुष्ट, दुराचारी और दुश्चरित्र को करुणा की अधिक आवश्यकता है। इन लोगों को तुच्छ समझने और तिरस्कार करने की बजाए इनसे सहानुभूति रखते हुए उनके अवगुणों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।

            बुद्ध की करुणा गणिका अम्बपाली और डाकू अंगुलिमाल हत्यारे के प्रति उल्लेखनीय है। दुराचारी मनुष्य के अन्दर भी अपने  को उन्नत करने की शक्तियां और सामथ्य विद्यमान रहता है। समय पर सम्यक वाणी का उपयोग उसके  जीवन को  बदल देता है ।

          महाराजा अशोक ने कितने अपराध किये बदनाम हुआ, चंड  अशोक कहलाने लगा, हत्याओं का बदनुमा दाग उसके जीवन पर लगा। कलिंग में भीषण रक्त पात युद्ध हुआ । वह पश्चाताप की अग्नि में झुलस रहा था। बहुत दिनों तक युद्ध की चीत्कार अशोक के मन मस्तिष्क में गूंजती रही थी । एक दिन न्यग्रोध नामक श्रामणेर शान्त मुद्रा में राज महल के निकट से गुजर रहा था।  महाराजा अशोक ने उसे देख अपने पास बुलाया। उचित मान सम्मान दे कर न्यग्रोध का स्वागत किया। भोजनोपरान्त श्रामणेर ने अशोक को उपदेश दिया –

                                        “प्रमाद न करना अमृत पद है की साधना है और प्रमाद मृत्यु पद। भ्रमित अन्तःकरण की दुर्बलता मृत्यु के समान है  लगातार  ध्यान का अभ्यास करने वाला, सचेत और शुभ कर्म वाला ही यशस्वी होता है।

वह प्राकृतिक आपदा से भी बचा रह सकता है। श्रेष्ठ पुरुष ही अप्रमाद की रक्षा करते हैं। अप्रमादी स्मृतिवान बुद्धिमान पुरुष संसार में आगे बढ़ता चला जाता है। उसका कभी पतन नही होता और निर्वाण के निकट पहुंच जाता है।“

             एक  श्रामणेर से सम्यक वाणी का प्रभाव जो तीर से तेज अशोक के हृदय पर काम कर गया। अशोक का जीवन बदल गया। और जीवन इतना बदला कि अशोक ने बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने का मन बना लिया। चंड अशोक के स्थान पर धम्माशोक कहलाया ।

मानव को जाति, धर्म, वंश और रंग रुप के आधार पर मानवीय अधिकार मना करना अमानवीय क्रूरता है ।

 भगवान बुद्ध की करुणा दुख पीड़ित मानव का आलिंगन है जबकि मैत्री मानव मात्र के लिए प्रेम है.

चाहे वह प्राणी आनन्द मय अथवा दुःख पीड़ित हो ।

मुदिता

              ब्रह्म विहार में विशिष्ट गुण मुदिता है। यह प्राणी मात्र के लिए सहानुभूति ही नही बल्कि मुदिता विरोधी ईर्ष्या को दूर करना है। एक विपल्वी शक्ति जो कि सभ्य सुन्दर मानव समाज रचना के लिये सबसे खतरनाक है, वह है ईर्ष्या । व्यक्ति स्वयं के लिए भी ईर्ष्या जोखिम पूर्ण है।

           आमतौर पर काफी लोग ऐसे होते हैं जो किसी की भी सफलता पूर्वक उपलब्धियों को न देख सकते है, और सकते हैं न सुन सकते ही सहन कर सकते है। किसी की सफलता अथवा उपलब्धि की प्रशंसा और अभिनन्दन करना तो दूर, उसमें मीन मेख निकालेंगे, बदनाम करेंगे, निन्दा करेंगे और तिरस्कार करने के लिए समय की तलाश में रहेंगे। इसलिए सूक्ष्म रूप से मुदिता का सम्बन्ध दूसरों की अपेक्षा स्वयं से ज्यादा है। क्योंकि मुदिता स्वयं से ईर्ष्या को खत्म करने का प्रयास है।

मुदिता का अभ्यास करने वाला दूसरों की उन्नति और कुशलता में बाधा उत्पन्न नहीं करता। अधिकतर लोगों के लिए यह असहनीय है। वे अपने विरोधी के लिए हर सम्भव बाधा  उत्पन्न करते हैं। यहां तक की जहर देना, सूली पर चढ़ाना, वध करना आदि करके अपने अन्दर की सदाचार भावना का भी कत्ल कर देते हैं। सुक्रात को जहर दिया गया क्राइष्ट को सूली चढ़ा दिया  गया, कई साइंटिस्टों को जिन्दा जला दिया,  ऐसा दुराचारी लोगों  का स्वभाव बन गया है और धार्मिक होने का लेबिल लगाए रखते हैं।

                  आमतौर पर भाई – भाई, बहन- भाई, बहन-बहन एक दूसरे से ईर्ष्या करते देखे जा सकते है ! व्यापारियों में, संस्थाओं में ईर्ष्या होती है एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय से ईर्ष्या करते हैं। धार्मिक सम्प्रदाय जो नैतिकता के पक्षधर हैं वह दूसरे धार्मिक सम्प्रदाय  के धार्मिक प्रभाव को बर्दाश्त नहीं करता । एक जाति दूसरी जाति से ईर्ष्या करती है। यदि अन्तराष्ट्रीय स्तर पर देखा जाए तो क्या पश्चिमी देश पूर्वी देश की समृद्धि और सफलता से प्रसन्न होते है ? क्या पूर्वी देश पश्चिमी देशों की खुशहाली और समृद्धि से प्रसन्न है ? नहीं। यह सब ईर्ष्या के कारण ही तो है। यदि यह कहा जाए कि ये सभी भगवान बुद्ध की मुदिता के अनुसार कंगाल है।  तो कोई अतिश्योक्ति नहीं है। धन सम्पति की समृद्धि भले ही हो लेकिन मुदिता से दूर-2 का भी सम्बन्ध नही है।

          मुदिता के लिये प्रसन्न रहने का अभ्यास करना चाहिए। लेकिन खुश रहना या हँसते – हंसाते रहना मुदिता का गुण नही है बल्कि यह तो मुदिता है। मुदिता का दुश्मन हो जाता का मुख्य गुण दूसरे की उप- लब्धियों और सफलता पर प्रसन्नतापूर्वक अभिनन्दन है। इसलिए मुदिता अर्थ का अर्थ सभी उन्नत, समृद्ध प्राणी को गले लगानी और अभिनन्दन वृति को समुन्नत करना है |

उपेक्षा

         धार्मिक समुन्नत अवस्था का चौथा गुण जो कि बहुत ही कठिन और  अत्यन्त आवश्यक है ।वह है उपेक्षा । उपेक्षा  का शाब्दिक अर्थ सम्यक् चिन्तन, न्याय प्रिय दृष्टिकोण है। भेदभाव, लोभ, लालच और मोह के बिना देखना तथा पक्ष- विपक्ष के बिना समता में रहना । आठ सांसारिक परिस्थितियां मनुष्य को परेशान करती है, उसके मानसिक सन्तुलन में उथल-पुथल मचा देती हैं। लाभ-हानि, मान-अपमान, प्रशंसा और बदनामी, सुख दुरु ग्रे आठ अवस्थाएं मानव को प्रभावित करती है| उतार-चढ़ाव के इस वातावरण में एक साधारण मनुष्य के लिए सन्तुलन बना कर रहना, समता में रहना “उपेक्षा” है। यह कठिन जरूर है लेकिन संतुलन आवश्यक हैं । तिरस्कार और बेइज्नती मानव के लिए आम हो गई हैं, इस संसार मैं अच्छे और भले मनुष्यों के साथ अन्याय, बदनामी और आक्रमण साथ लगे रहते हैं। इससे वे सदैव प्रभावित रहते है। भगवान बुद्ध के सिवा कोई भी धार्मिक शिक्षक ऐसा नहीं है, जिसकी, तीखी एवं तीव्र आलोचना की गई हो, उस पर आक्रमण किया गया हो, उस की निन्दा की गई हो। फिर भी भगवान बुद्ध  के सिवा कोई भी धार्मिक शिक्षक नहीं है, जिसका संसार में अत्याधिक सम्मान, प्रशंसा औरपूजा की गई हो।

              सुत निपात  के अनुसार एक बार जब श्रावस्ती में भिक्षाटन के लिए प्रविष्ट  हुए  तो एक ब्राह्मण ने उसे जाति  भ्रष्ट  कहा। बुद्ध ने शान्त रह उसे समझाया – जाति (जन्म)  से कोई ब्राह्मण नही होता, कोई शुद्र नहीं होता। कर्म से ही कोई वृषल होता है और कर्म से ही ब्राह्मण होता है। ब्राह्मण ने बुद्ध का उपदेश सुन कर शिष्यत्व स्वीकार किया।

इसी प्रकार एक और ब्राह्मण ने उसे गालियां दी, वाणी का दुर-उपयोग किया। लेकिन बुद्ध शान्त रहे। उस ब्राह्मण को भगवान बुद्ध ने समझाया और उसके भोजन का परित्याग किया। दोषी ब्राह्मण पर इसका प्रभाव पड़ा।

           बुद्ध कहते हैं- “प्रतिकार न करें मौन रहिए। यदि आप ऐसा करते है तो आप ने निब्बान प्राप्त कर लिया हैं। बस उसे अनुभव करना शेष रह गया है।“ गैर अनुशासित संसार के लिए भगवान बुद्ध के यह सुनहरे शब्द हैं।

                   एक बार भगवान बुद्ध ने ब्राह्मण कन्या मागन्दिया से विवाह करने से इन्कार कर दिया। कुछ समय पश्चात् कन्या का विवाह राजा उदयन से हो गया। लेकिन वह तथागत ईर्ष्या करने लगी। बुद्ध को अपमानित करने के लिए कई प्रयास किये गये।

               एक बार उसने कुछ शराबी दासों को प्रलोभन दिया और कहा कि तुमने तथागत को गालियां देनी हैं। उनके प्रति अपशब्दों का प्रहार करना है, उन्हें बदनाम करना है उनका  अपमान करना है। शराबियों ने वैसा ही किया। लेकिन बुद्ध शान्त रहें। यह बुद्ध का उपेक्षा भाव था। शराबियों को वैसा करते हुए देखकर आनन्द बुद्ध से अन्यत्र चले जाने के लिए प्रार्थना की लेकिन बुद्ध बिल्कुल खिन्न नहीं हुए।

                  भिक्षुओं के आचरण, उनके रहन सहन तथा व्यवहार के कारण भिक्खु संघ की ख्याति बढ़ने लगी । अन्य आचार्यों का मान सम्मान कम  होने लगा। जैसे सुर्योदय के पश्चात् जुगनू प्रभाहीन हो जाते है। उसी प्रकार उनका मान सम्मान और धन वैभव खत्म होने लगा। उन्होंने बुद्ध और संघ को बदनाम करने के लिए चिंचा को तैयार किया । चिंचा रूपवती अप्सरा  तुल्य थी। चिन्चा त्रिया चरित्र में निपुण थी । 

             एक दिन भगवान बुद्ध उपदेश कर रहे थे। श्रावस्ती और बाहर से जन समूह उमड़ा था। अचानक चिंचा  भगवान के सामने खड़ी हो गयी। अपने पेट की और इसारा करते हुए कहा – यह गर्भ तुम्हारा है। यह पूरा हो गया है। क्या प्रसूति गृह का प्रबन्ध किया।“

                                फिर ऊंचे स्वर में बोली- अभिरमण जानते हो, गर्भ  उपचार नही जानते ।

            तथागत  ने शान्त स्वर में कहा – “बहन ।“

           बहन शब्द सुनते ही चिंचा फिर चिल्लाई इधर-उधर हाथ  पटकने लगी – “मुझे बहन  कहते हो ।”

अब चिंचा को भेद खुलने का डर सताने लगा। अपने आप को तथा वस्त्रों को संभालते हुए काठ की बनाई कठोती, जिसे उसने पेट पर बांध रखा था, खुल कर पेट से नीचे पंजो पर गिर पड़ी । जनता यह देख कर बिगड़ी और कहा –

‘झूठी कहीं की, भगवान पर मिथ्या आरोप लगाती है।” चिन्चा प्राण भय से भागी। भीड़ पीछे-2, भयंकर कोलाहल हुआ। चिन्चा ने गर्भवती होने का बहाना बना कर बुद्ध को बदनाम करने की कोशिश की। लेकिन बुद्ध उदासीन  नहीं हुए, शान्त रहे। तथागत ने हुए  इस अपवाद को सौम्य बल से जीत लिया ।

           देवदत्त ने भी बुद्ध को मारने का असफल प्रयास किया । देवदत्त के शिष्यों ने देवदत्त को ईर्षालु कहा।दूसरी ओर काफी लोगों ने भगवान बुद्ध की प्रशंसा के गीत गाये। राजाओं ने षाष्टांग प्रणाम किया।  बुद्ध को सर्वोच्च सम्मान दिया। इसी लिए तो कहा गया  हैं- शेर की भांति मनुष्य को किसी की बेहूदी बातों से खिन्न नहीं होना चाहिए। कमल की भांति कीचड़ से मुक्त रहना चाहिए। सांसारिक उतार चढ़ाव में समता का भाव रखना चाहिए।

उपेक्षा का दुश्मन राग है। उपेक्षा आसक्ति और अति घृणा को दूर करता है। उपेक्षा की मुख्य विशेषता पक्ष पात रहित उन्नत स्वभाव है। जो समता का अभ्यास करता है, वह न तो किसी इच्छित वस्तु के प्रति राग पैदा करता है  और न  ही अनचाही वस्तु के प्रति घृणा करता है।

सुत्त निपात के अनुसार –

                              मेतं उपेक्खं करुणं विमुतिं, आसेव मानो मुदितं  काले।

                        सब्बेन लोकेन अविरुज्झमानो, एको चरे खग्गविसाणकप्यो “

समयानुसार मैत्री, उपेक्षा, करुणा, विमुक्ति और मुदिता का अभ्यास करते हुए, संसार में विरोध-भाव  न रखते हुए, गेंडा  की भाँति अकेला विचरण करे।

भवतु सब्ब  मंगलं।

कपूर सिंह सिंगल

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